विभिन्न रामायण एवं गीता >> भगवती गीता भगवती गीताकृष्ण अवतार वाजपेयी
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गीता का अर्थ है अध्यात्म का ज्ञान ईश्वर। ईश्वर शक्ति द्वारा भक्त को कल्याण हेतु सुनाया जाय। श्रीकृष्ण ने गीता युद्ध भूमि में अर्जुन को सुनाई थी। भगवती गीता को स्वयं पार्वती ने प्रसूत गृह में सद्य: जन्मना होकर पिता हिमालय को सुनाई है।
शिव-पार्वती विवाह
शिव एवं पार्वती ने परस्पर एक-दूसरे का मन में ध्यान करते हुए हजारों वर्ष तपस्या में बिता दिये। एक समय भस्मीभूत शङ्कर पार्वती के समीप जाकर हाथ जोड़कर कहने लगे-'यरमेशानि! तपस्या छोड़िए, मैं आपके कठिन ध्यान, तप तथा मौन व्रत से आपका क्रीतदास हो गया हूँ। अपनी सेवा में लीजिये। शिवा! प्रसन्न होकर अंगमार्जन में, हारकेयूर पहनाने में अलक्तक आदि रागद्रव्यों को अंगों में लगाने के लिये मुझे नियुक्त कीजिये। हे महादुर्गे! मेरा उद्धार करें।'' तब लज्जावनत्मुखी पार्वती ने मुसकान भरे मुख से सखियों से कहा-पिता द्वारा शंकर विधिपूर्वक मेरा पाणिग्रहण करें। विवाह का प्रस्ताव पिता से कर्हे। यह कहकर पार्वती पिता के घर चली आई।
पार्वती के घर लौट आने पर पिता एवं सभी बन्धु-बान्धव प्रसन्न हो गये तथा शंकर के प्रस्ताव की प्रतीक्षा करने लगे। इधर शिव जी ने मरीचि आदि सप्तऋषियों कों बुलाकर हिमालय के समीप विवाह का प्रस्ताव भेजा। सप्त ऋषियों ने गिरीन्द्र के भवन में जाकर प्राचीन सम्पूर्ण प्रसंग बताकर पुत्री पार्वती को शिव को देने का आग्रह किया। पर्वतराज ने स्वयं को इससे कृतकृत्य एवं पवित्र मानकर देवाधिदेव चन्द्रशेखर को सक्षम मानकर उनको पुत्री देने का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया।
सप्तऋषियों द्वारा शिवजी ने हिमालय की स्वीकृति जानकर उत्तम मुहूर्त में-जो वैशाख माह में शुक्ल पक्ष का पज्वमी तिथि गुरुवार को था-अपना प्रस्ताव सप्त ऋषियों द्वारा ही भेज दिया। सप्त ऋषियों को विवाह में पधारे हेतु कहकर उनको विदा कर दिया तथा नारद मुनि द्वारा ब्रह्मा, विष्णु इन्द्रादि देवों को, गन्धर्व, किन्नर सभी को विवाह में आने का निमंत्रण भिजवा दिया। सभी देवगण शिव विवाह की तैयारी में लग गये।
इधर हिमालय का नगर ढोल, तुरही, गोमुखादि वाद्य ध्वनियों से गूँजने लगा। गन्धर्वगण गाने लगे, अप्सराएँ नृत्य करने लगी। देवताओं तथा पर्वतों की आई हुई कन्याओं को वस्त्रों तथा अलंकारों को देकर सन्तुष्ट किया। पुर में मङ्गल विवहोत्सव का स्वरूप विद्यमान था। सुन्दर गन्ध युक्त पवन शनैः शनैः प्रवाहित था। उधर शिव समीप देव गन्यर्वादि पहुँचने लगे। गन्धर्व गान करने लगे, पुष्पवृष्टि होने लगी, तपोवन में वृक्षों की शाखाएँ सुन्दर पुष्प गुच्छे से झुक गयीं। सहस्त्रों कोयलें और भ्रमर गान करने लगे। शीतल मलयानिल बहने लगा। ब्रह्मा अपने मानसपुत्रों सहित, भगवान विष्णु सरस्वती और लक्ष्मी सहित शिव समीप आ गये।
इस शुभावसर पर रति द्वारा इन्द्रादि से पति को पुनः जीवन देने हेतु कहने पर इन्द्रादि देवताओं की प्रार्थना सुनकर शिव ने कामदेव को पुनः शरीर की प्राप्ति करा दी। सभी प्रसन्न हो गये। रात्रिबेला में निर्मल चन्द्रमा निकला था। लाल-पीली जटाओं वाले ब्रह्मा ने शिव जी से कहा कि यह श्रेष्ठ रूप देवता तथा योगियों को प्रीति देने वाला है। इसे तिरोहित कर सौम्य रूप धारण कीजिये। इससे मेना सास प्रसन्नता प्राप्त करें। हिमालय सर्वांग सुन्दरी पुत्री गौरी को अर्पण करें, उनकी प्रसन्नता बढ़ाइये। अतः सुन्दर और कल्याणकारी रूप धारण कीजिये। ब्रह्मा के ऐसा कहते ही शिव जी दो भुजाओं और एक मुख वाले सौम्यरूप में हो गथे। जटा स्वर्णमुकुट हो गई, तीसरा नेत्र सुन्दर हो गया। शरीर में लगा भस्म चन्दन हो गया, सर्प स्वर्ण का आभूषण बन गये। शुभ मुहूर्त में देवेश्वर को बैल की पीठ पर बेतकरे देवताओं आदि ने हिमालय के नगर की ओर प्रस्थान का निश्चय किया। प्रस्थान के समय पुष्पवर्षा होने लगी, दुन्दुभियाँ बजने लगीं, शीतल सुगन्धित वायु बहने लगी, पक्षी कलरव करने लगे, प्रमथगण हर्षित होकर मुख वाद्य बजाने लगे। सभी बरातियों सहित वृषभध्वज भगवान शिव ने हिमालय के पुर की ओर प्रस्थान किया।
नगर के समीप बारात को आया हुआ जानकर हिमालय ने जाकर स्वागत किया तथा त्रिदेवों तथा सप्तऋषियों सहित नगर में प्रवेश किया। नगर निवासी प्रसन्न थे तथा कहते जैसे गौरी रूपवती है वैसे ही महादेव रूपसम्पन्न हैं। शुभमुहूर्त में विधिपूर्वक पार्वती का पूजन कर शिव को प्रदान कर दिया। महोत्सव अद्भुत था। सभी देव प्रसन्न थे। हिमालय ने अनेक प्रकार से शङ्कर की स्तुति की। भगवान शिव हिलालय पर उत्तम नगर बसाकर रहने लगे। जो प्राणी पार्वती के शुभ विवाहोत्सव को पढ़ता या सुनता है वह भगवती के चरणों की सन्निधि प्राप्त कर लेता है। एक बार भी श्रवण करने पर मनुष्य मनोवाञ्चित फल प्राप्त करता है तथा देवी की कृपा से सभी पापों से मुक्त हो जाता है।
भगवान शिव ने अपने को पार्वती के रूपदर्शन में दिन-रात लगा दिया। शिव जी ने एक दिन वन पुष्पमाला बनाकर कपूर तथा अगरू से सुगन्धित करके पार्वती के गले में पहना दी। नगर की रक्षा में प्रमथगणों को नियुक्त कर देवताओं तक का प्रवेश निषिध कर दिया। हिमालय शिखर पर पार्वती के साथ दीर्घकाल तक विहार किया। एक समय ब्रह्मा सहित देवताओं ने उनसे विनय की कि पृथ्वी की रक्षा हेतु आप लीलाविलास से विरत हो जाएँ। कार्तिकेय का जन्म हुआ और वह देव सेनापति बने। तारकासुर से युद्ध कर उसका वध कर दिया। ब्रह्मा जी ने कार्तिकेय को शिव-पार्वती को लाकर दे दिया तथा बताया कि यही तुम्हारे माता-पिता हैं। शिव पार्वती ने भी कार्तिकेय को अपना पुत्र जाना। शिव जी ने पुत्रोत्सव मनाया, उसमें भगवान विष्णु भी आये। कार्तिकेय को जगदम्बा की गोद में देखकर विष्णु के मन में आया कि मैं भी इन भगवती का पुत्र होकर कभी इनकी गोद में खेलूँ और वात्सल्य-स्नेह भरा इनका दूध पियूँ। देवी का मन ही मन ध्यान दिया और प्रणाम करके चल पड़े। उनकी अभिलाषा जानकर परमेश्वरी जगदम्बा ने विष्णु को वरदान दिया कि विष्णो! तुम मेरे पुत्र बनोगे।
गणेश का जन्म-एक समय भगवान शिव भवानी पार्वती सहित पृथ्वी पर विहार हेतु आये और एक सुन्दर नगरी का निर्माण कर रहने लगे। एक दिन वह वन में पुष्प चयन हेतु गये। इधर भगवती गौरी हल्दी का उबटन लगाकर स्नान के लिये उद्यत हुईं। समस्त ब्रह्माण्ड की रक्षा करने वाली जगदम्बा अपने निवास की रक्षा हेतु चिन्ता करने लगीं। उसी क्षण भगवान विष्णु की पूर्व प्रार्थना को स्मरण कर शरीर पर लगे हरिद्रा उबटन का अंश लेकर एक पुत्र का निर्माण किया। उस बालक के बड़े हाथ, लम्बा-सा पेट, मनोहर मुखमण्डल, तीन नेत्र, रक्तवर्ण, मध्याह्न के सूर्य के तेज के समान प्रभा मण्डल था। वह पुत्र सभी गणो का स्वामी साक्षात् नारायण जैसा था। तब प्रसन्न होकर उसे अपना दूध पिलाते हुए पार्वती नेकहा, 'पुत्र! जब तक मैं स्नान करके आऊँ तब तक तुम मेरे नगर की रक्षा करना।'' बालक नगर की रक्षा करने लगा। इसी बीच शिवजी पुष्प लेकर लौटे। बालक ने शिव को प्रवेश करते देख त्रिशूल उखकर रोका। शिव ने अपना त्रिशूल चलाकर बालक का मस्तक भस्म कर दिया। पार्वती पुत्र निष्प्राण नर्ही हुए। महेश्वर के त्रिशूल ने उसके प्राण हरण नर्ही किये थे। तभी स्नान से सुरेश्वरी भी आ गई। उन्होंने सिर रहित पुत्र को देखकर देवाधिदेव शङ्कर से पूछा कि इस मेरे बालक का सिर किसने भस्म किया है? बतायें। शिव ने कहा-"मैं नहीं जानता था कि यह आप का पुत्र है। इसने मेरा मार्ग रोका, मैंने इसका सिर भस्म कर दिया।'' पार्वती ने क्रोध से कहा कि इसका सिर लाकर दें। शिव जी चल दिये। उत्तर दिशा की ओर मुख किये एक महाबली गज सो रहा था। उसका सिर लाकर लगा दिया और कहा 'देवी का यह पुत्र गणों का अधिपति तथा गजानन हो।' गजानन को साक्षात् नारायण जानकर अपनी गोद में लेकर बहुत स्नेह किया तथा कहा, 'जनाद्रन! अनजाने में शूल से सिर काटा है। अब द्वापर में वसुदेव के घर देवकी गर्भ से जब आप पुनः अवतार लेंगे तब आपके साथ मेरा शोणितपुर में संग्राम होगा। उस समय मैं शूल सहित आपके द्वारा अवश्य स्तम्भित कर दिया जाऊँगा।'' कुछ समय तक विहार कर पार्वती पुत्र सहित हिमालय शिखर पर लौट आये। दोनों पुत्रों सहित शिव-पार्वती परमप्रीति से हिमालय पर रहने लगे।
जगदम्बा के इस उत्तम चरित्र को जो भक्तिपूर्वक पड़ता है उस पर देवों को भी दुष्प्राय भगवती पार्वती प्रसन्न होती है। उसके मनोवाञ्चित कार्य निश्चित ही पूर्ण होते है। जो भक्तिपूर्वक देवी के इस उत्तम चरित्र को सुनता है उसके पुण्य और यश की वृद्धि होती है। अन्त में देवीलोक पहुँचकर आनन्द प्राप्त करता है।
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